भास्कर ओपिनियन: चुनावी अश्वमेध और दीवारों पर सुसताते आंदोलन

21 मिनट पहले

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पाँच साल बाद फिर चुनावी अश्वमेध होने जा रहा है। तमाम जनप्रतिनिधि अपनी-अपनी कुर्सियाँ बचाने के लिए दौड़ पड़े हैं। कोई एक पार्टी का है, कोई दूसरी पार्टी का। बहुतेरे तीसरी, चौथी, पाँचवीं और कई अन्य पार्टियों के भी हैं।

उनकी इच्छाएँ अपने दांत पैने करने में लगी हुई हैं कि कब मौक़ा मिले और कब सारे के सारे वोट चबा जाएँ! वे सब के सब चाहते हैं कि हमारे देश में ऊपर से नीचे तक सब कुछ बदलना चाहिए। मगर कुर्सी जिस पर वे बैठे हैं और उसके नीचे का ज़मीन का टुकड़ा जो है, वो यूँ ही रहे अपनी जगह तो बहुत अच्छा।

बेचारा आम आदमी अकाल में बटोरे हुए दानों की तरह है। वो पिसता है। फिर पिसता है…और फिर फिर पिसता रहता है। कभी किसी घट्टी में, कभी किसी चक्की में या किसी ढोर-डंगर के दांतों के बीच। ये वो आम आदमी है, जिसकी पंद्रह अगस्त को भी छुट्टी नहीं है।

मुसीबतों, समस्याओं से ज़ख़्मी उसके पाँवों को एक लम्बा रास्ता निगलता जा रहा है। ज़िंदगी से लड़ते-लड़ते वो वंदे मातरम् की तर्ज़ भी भूल जाता है। बात ये नहीं है कि ये सारी समस्याएँ, ये तमाम तकलीफ़ें आज अचानक या कुछ सालों में पैदा हो गई हों। वर्षों से चली आ रही हैं। सत्ताएँ बदलती जा रही हैं।

सरकारें नई-नई आती गईं, नेता भी बदलते रहे, लेकिन ये आफ़तें फिर भी वैसी की वैसी ही हैं, युगों से। फिर भी वे हर पाँच साल में संसद जीतने आते हैं। हमारे आस-पास घूमते फिरते हैं। अपनापन दिखाने का उनका दिखावा देखिए कि कोई गली में बर्तन मांझती महिला के साथ उन्हीं बर्तनों को धोने बैठ जाता है। कोई रास्ते में दिखते हर बच्चे-बुजुर्ग से आशीर्वाद लेता फिरता है।

हम आम लोग अच्छी तरह जानते हैं उनका ये दिखावा कब तक है? क्यों है? और इसका कारण क्या है, लेकिन हमें दया आ जाती है उनके झक सफ़ेद कुर्ते पर।… कि कैसे कुर्ते के मैले होने की परवाह किए बग़ैर हमारे चरणों में गिरा पड़ा है? कैसे लाखों के चश्मे के भीतर भी उसकी नजरें महिलाओं के सम्मान में झुकी हुई हैं।

हमारी यही दया, हमारी यही करुणा तो वे वर्षों से भुनाते आ रहे हैं! एक बार वोट पड़े कि फिर कौन सी गली, कौन सा मोहल्ला और कौन सा गाँव, क़स्बा या शहर! सबकुछ भूलकर कुर्सी पर पसर जाते हैं। टस के मस नहीं होते। राजनीति अब ऐसी ही हो गई है।

करोड़ों खर्च करके आख़िर कोई गली मोहल्लों में पाँच साल क्यों घूमता फिरे, ये आज की राजनीति का सिद्धांत है। वो दिन लद गए जब नेताओं में नैतिकता कूट-कूट कर भरी होती थी। कोई पैदल तो कोई साइकल पर प्रचार करते चुनाव जीत जाता था। …और विधायक, सांसद या मंत्री रह चुकने के बाद भी वापस उसी साइकल पर आ ज़ाया करता था।

हालाँकि राजनीतिक पार्टियों को मिल रहे चंदे पर फ़िलहाल बड़ी बहस छिड़ी हुई है। सुप्रीम कोर्ट के कहने के बावजूद एक बैंक चंदे का पूरा डेटा एक बार में चुनाव आयोग को नहीं दे पा रहा है। ख़ैर, डेटा पूरा दे भी दिया जाएगा तब भी फ़र्क़ क्या पड़ना है? होना कुछ नहीं है।

कुछ ही दिन में लोग भी भूल जाएँगे सब कुछ और विपक्ष को तो कुछ पड़ी ही नहीं है। जिस देश में विपक्ष को मुद्दों और मसलों की ही समझ नहीं हो उस देश में रचनात्मक विपक्ष की कल्पना कैसे की जा सकती है भला!

कई मुद्दे आए और चले गए लेकिन मजाल है कि विपक्ष किसी को हाथ भी लगा दे! आंदोलन की तो बात दूर है। वैसे भी अब आंदोलन तो लोग भूल ही गए हैं। विपक्षी पार्टियों की लेतलाली के कारण अब तो इस देश में आंदोलन सुसताते रहते हैं। कभी किसी पुती हुई दीवार पर, तो कभी किसी ऑटो रिक्शा के पिछले पर्दे पर।

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