सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शादी के बाद महिला को नौकरी से निकालना लैेगिक असमानता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शादी के आधार पर महिलाओं को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता है। शादी करने की वजह से महिलाओं को नौकरी से निकाल देने वाले नियम असंवैधानिक और पितृसत्तात्मक हैं। ये नियम इंसानी गरिमा और निष्पक्ष व्यवहार के अधिकार को कमजोर करता है।
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दरअसल, आर्मी नर्स सेलिना जॉन को आर्मी नर्सिंग सर्विस ने शादी करने की वजह से नौकरी से निकाल दिया गया था। सेलिना को बर्खास्त किए जाने को सुप्रीम कोर्ट ने ‘जेंडर भेदभाव और असमानता का बड़ा मामला’ करार दिया। कोर्ट ने केंद्र सरकार को 60 लाख रुपए का मुआवजा याचिकाकर्ता सेलिना जॉन को देने का भी आदेश दिया है।
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने कहा कि ऐसे नियम असंवैधानिक हैं जिनके आधार पर महिला अधिकारियों को उनकी शादी की वजह से नौकरी से बर्खास्त किया जाए।
तीन दशक पुराना है मामला
मामला तीन दशक पुराना है, जब सेलिना जॉन को आर्मी नर्सिंग सर्विस के लिए चुना गया था और वह दिल्ली के आर्मी अस्पताल में बतौर ट्रेनी शामिल हुई थीं। उन्हें MNS में लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन दिया गया था। इस दौरान उन्होंने एक आर्मी ऑफिसर मेजर विनोद राघवन के साथ शादी कर ली। इसके बाद सेलिना को 1988 में रिलीज कर दिया गया।
नर्सिंग सर्विस ने ये फैसला 1977 के आर्मी इंस्ट्रक्शन के आधार पर लिया था। इसका टाइटल था- मिलिट्री नर्सिंग सर्विस में पर्मानेंट कमीशन देने के नियम और शर्तें। इसमें प्रावधान था कि ‘MNS में नियुक्ति की समाप्ति’ तीन आधारों पर की जा सकती है। इस नियम के मुताबिक, मेडिकल बोर्ड की राय में सेवा के लिए अयोग्य होने, शादी करने पर और गलत व्यवहार पर नौकरी से निकाला जा सकता है। शादी का नियम सिर्फ महिलाओं पर लागू होता था।
नोटिस जारी किए बगैर नौकरी से रिलीज किया
सेलिना को नौकरी से रिलीज करने से आदेश में कोई कारण बताओ नोटिस, सुनवाई या सेलिना की तरफ से अपनी बात रखने की गुंजाइश नहीं दी गई। आदेश से यह पता चला कि शादी के आधार उन्हें सर्विस से रिलीज किया गया है।
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी याचिका
मार्च 2016 में यह मामला आर्म्ड फोर्स ट्रिब्यूनल, लखनऊ में गया जिसने आर्मी नर्सिंग सर्विस के आदेश को रद्द कर दिया। सेलिना को बकाया वेतन और अन्य लाभ भी दिए गए। ट्रिब्यूनल ने सेलिना की सेवा बहाली की भी इजाजत दे दी।
हालांकि केंद्र ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट याचिका दायर की। 14 फरवरी को इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हुई। कोर्ट ने कहा कि यह नियम सिर्फ महिलाओं पर लागू होते हैं और इन्हें ‘साफ तौर पर मनमाना’ कहा जा सकता है।
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