कहानियों और करिश्मे की सियासी लड़ाई के दौर में इस बार तेलंगाना का चुनाव बेहद रोमांचक है। सत्तारूढ़ बीआरएस और विपक्षी कांग्रेस की लड़ाई में भाजपा तीसरा कोण है।
बीआरएस के पास तेलंगाना निर्माण के लिए लड़ने वाले के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) और राज्य सरकार के 10 साल के कामों की फेहरिस्त है।
वहीं, कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस के पास भारत जोड़ो यात्रा की कहानियां और ‘गारंटी’ की आजमाई हुई तरकीब है।
दूसरी ओर, भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और केंद्र की उपलब्धियों के भरोसे मैदान में है।
लड़ाई तेलंगाना के लिए लड़ने और उसे बनाने वालों के बीच
हैदराबाद में मिले ऑटो वालों से लेकर कारोबारियों तक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं से विश्वविद्यालयों तक, ओल्ड सिटी की गलियों तक, मतदाता एक बात पर स्पष्ट हैं कि लड़ाई तेलंगाना के लिए लड़ने और तेलंगाना बनाने वाले के बीच है। केसीआर ने अलग राज्य के लिए संघर्ष किया था, वहीं कांग्रेसनीत यूपीए ने 2014 में तेलंगाना का गठन किया था।
यही कारण है कि एक दशक बाद यह मुद्दा भाषणों के केंद्र में है। बीआरएस जहां तेलंगाना आंदोलन के दौरान हुई ज्यादतियों को याद करा रही है, वहीं कांग्रेस की ओर से चिदंबरम ने इसके लिए माफी मांगी है।
तेलंगाना के मंत्री और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) नेता टी. हरीश राव 18 नवंबर को निज़ामाबाद में चुनाव प्रचार करने पहुंचे थे।
पढ़ें क्या है BRS-कांग्रेस की ताकत और चुनौती
भारत राष्ट्र समिति (BRS)
ताकत- केसीआर का चेहरा और हर वर्ग के लिए योजनाएं : केसीआर ने अक्टूबर में पार्टी का नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) से बदलकर भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) किया तो राष्ट्रीय राजनीति में उतरने की मंशा जता दी। बीआरएस का कहना है कि केसीआर तीसरी बार सरकार बना रहे हंै। पार्टी के सचिव के. नरेंद्र रेड्डी कहते हैं- केसीआर बुजुर्गों के लिए बेटे, महिलाओं के लिए भाई और युवाओं के लिए ‘मामा’ हैं। जन्म, पढ़ाई, शादी, इलाज, खेती-किसानी तक हर कदम पर कोई न कोई योजना दी है।
चुनौती – विधायकों के खिलाफ गुस्से के बावजूद 95% चेहरों को रिपीट: धरनी पोर्टल में भ्रष्टाचार से छोेटे-मझोले किसानों को ठगने और बड़े काश्तकारों को फायदा पहुंचाने का आरोप है। 1.10 लाख करोड़ के कालेश्वरम प्रोजेक्ट में गड़बड़ी खुलने से भी भ्रष्टाचार के आरोपों को बल मिल गया है।
कांग्रेस
ताकत- कर्नाटक मॉडल पर चुनाव लड़ रही… यहां 6 गारंटी पर भरोसा : 2018 के चुनाव में कांग्रेस 19 सीटों पर सिमट गई। 11 विधायकों के पाला बदलने से कांग्रेस में 8 विधायक बचे। हालांकि, कर्नाटक की जीत ने संजीवनी दी। कांग्रेस प्रवक्ता रोहन गुप्ता कहते हैं- भारत जोड़ो यात्रा ने संगठन को एक्टिव कर दिया है। हमने यहां भी 6 गारंटी दी हैं। इनमें महिलाओं को सरकारी बसों में फ्री यात्रा, 200 यूनिट फ्री बिजली जैसी घोषणाएं हैं। हम जीत रहे हैं, इसीलिए 3 पूर्व सांसद और 22 पूर्व विधायक भाजपा-बीआरएस छोड़ कांग्रेस में आए हैं।
चुनौती- CM पद के आधा दर्जन से ज्यादा दावेदार : कांग्रेस चुनाव भले मजबूती से लड़ रही हो, पर पार्टी छह माह पहले जमीन पर पूरी तरह एक्टिव हुई है। पार्टी 6 गारंटी को भी सही तरीके से पहुंचा नहीं पाई है। दूसरी चुनौती कांग्रेस में सीएम पद के आधा दर्जन से ज्यादा दावेदार हैं।
भाजपा का फोकस- आक्रामक प्रचार, हिंदुत्व, जातीय गणित पर
2019 में लोकसभा की 4 और 2020 में हैदराबाद ग्रेटर नगर निगम की 48 सीटें जीतने के बाद एक समय ऐसा था, जब भाजपा बीआरएस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई थी। भाजपा उग्र हिंदुत्व और केसीआर पर भ्रष्टाचार व परिवारवाद के आरोप लगाकर जमीन मजबूत कर रही थी।
हालांकि चुनावी साल में पार्टी की कमान सांसद संजय बंडी की जगह केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी को सौंपने के बाद एक तरीके से सियासी धार कुंद हो गई। भाजपा के राज्य प्रभारी प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि हम केसीआर-कांग्रेस के भ्रष्टाचार-परिवारवाद से लड़ रहे हैं और जीतेंगे।
गृह मंत्री अमित शाह ने तेलंगना के लिए 18 नवंबर को भाजपा का मैनिफेस्टो जारी किया है।
प्रचार के आखिरी दौर में पीएम, गृहमंत्री सहित वरिष्ठ नेताओं की 150 से ज्यादा सभाएं होंगी। भाजपा ने ओबीसी सीएम बनाने का ऐलान किया है और 40 से ज्यादा ओबीसी प्रत्याशी उतारे हैं।
मतदाता अब कन्फ्यूजन में वोट नहीं देते… प्रचार का आखिरी दौर अहम होगा
बीआरएस विधायकों से नाराजगी और भ्रष्टाचार का मुद्दा है, लेकिन सरकार के खिलाफ लहर नहीं है। कांग्रेस भाजपा-बीआरएस और ओवैसी को मिला बता रही है तो बीआरएस कांग्रेस-भाजपा को। एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि अगर वोटिंग कर्नाटक की तरह हुई, यानी ग्रामीणों, गरीबों व मुस्लिमों ने बदलाव के लिए वोट किया तब बीआरएस के लिए समस्या होगी।
वहीं, मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान विभाग के हेड प्रो. अफरोज आलम कहते हैं, कांग्रेस ने जगह बनाई, लेकिन जीत पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी। मतदाता कन्फ्यूजन में वोट नहीं देता। लोग या तो बदलाव चाहते हैं या नहीं… ऐसे में प्रचार का आखिरी दौर अहम होगा।
.