चुनाव की बेला है। लोकसभा चुनाव की। हर तरफ हल्ला है। शोर है। कुछ ही दिनों में घोषणा होने वाली है। तैयारियाँ ज़ोरों पर है। हर तरफ़। कुछ जीत के लिए आल्हादित हैं और कुछ लगता है चुनाव से पहले ही हार मान चुके हैं। ख़ैर, हार- जीत का ज़्यादा मसला इस बार है नहीं। बस मौसम है चुनाव का। अब नेताजी फिर आएँगे हमारे शहर, गली और गाँव में। हमें उन्हें बुलाना ही चाहिए। कहना चाहिए कि आप आना। जब भी वक्त मिले। …और जब वक्त न हो, तब भी चले आना।
(05 मार्च 2024) राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक न्यूज़पेपर में प्रिंट आज़ की ख़बर…
जैसे जिस्म की सारी ताक़त हाथों में आ जाती है। आप भी आना। जैसे लहू आता है रगों में। जैसे हौले से चूल्हे में आँच आती है! आप भी आना! और क़समें, वादे जाएँ जहन्नुम में! आ जाना। जैसे स्याह ‘वीनस’ मर्क्यूरी के पीछे आता है। आ जाना! बीसियों घड़ों का पानी उलीचकर, कामनाओं की चीकट धोने- सुखाने के लिए एक अदद झोला ही तो चाहिए। वो लेते आना। लेकिन आना। ज़रूर आना।
सालों पहले से हमारी मटमैली पड़ी गलियाँ अब हमें उसी हाल में अच्छी लगने लगी हैं। उन गलियों से जो टूटी- फूटी सड़कें जुड़ती हैं, उनके गड्ढों में ठहर जाने को मन करता है। … और उन सड़कों के आस पास आपकी मेहरबानी से जो अट्टालिकाएँ खड़ी हो गई हैं, वे हमें जब- तब चिढ़ाती रहती हैं … कि और दो वोट! देते जाओ! कुछ भी कर लो! हमसे नीचे ही रहोगे।
लेकिन नेताजी आपसे हमें कोई शिकायत नहीं है। ये चुनाव की बेला है और आप आना। ज़रूर आना। आख़िर हम इतने गए- गुजरे भी नहीं हैं जो कहें कि चलो! चाँद पर चलें… वहाँ से नेताओं पर पत्थर फेंकेंगे! इसलिए आना ज़रूर। हमारी गलियों के मैले- कुचैले कोनों पर खड़े रबड़ के पेड़ों पर आप जो सूलियाँ लटका गए थे, बीते कुछ वर्षों में वे जंग खा गई हैं। उन्हें फिर से चमकाना है। उनकी धार तेज करना है। इसलिए आना।
हम तो सोए हुए हैं वर्षों से। हमें शौक़ है अपने ही सिरहाने बैठकर खुद को गहरी नींद में सोते हुए देखने का। आप इतने बरस से क्यों नहीं आए? क्या सिर्फ़ वोट कबाडना ही आपका काम था? लोगों के हाल पूछना, मुसीबत में उनके काम आना यह सब क्या आपका काम नहीं है? इस तरह के किसी सवाल से आपका सामना नहीं होगा।
कोई कुछ नहीं पूछेगा आपसे। इसलिए आना। क्योंकि हम तो कोल्हू के बैल हैं। गोल- गोल घूमने के सिवाय हमें कुछ नहीं आता। बीज पिसते रहते हैं। तेल निकलता रहता है। हम मीलों, कोसों चलते हैं फिर भी वहीं के वहीं। चाबुक पड़ते रहते हैं। खाल उधड़ती रहती है।
हम चलते रहते हैं। यही कहानी है हमारी। इसे साक्षात देखने का मन तो आपका करता ही होगा। इसलिए चले आना। वक्त निकालकर आना ज़रूर। उधड़ी हुई खालों के घाव आख़िर कितने गहरे हो चले हैं, यह भी तो देखना है! इसलिए आना। आइए और ज़रूर देखिए – हमारे गिरवी रखे हुए खेत कैसे हैं?
देखिए कि बिलखती स्त्रियों के उतारे हुए गहनों की चमक फीकी पड़ी है या नहीं? भूख से, बाढ़ से और महामारी से मरे हुए लोग उन गिरवी रखे खेतों में फिर से उग आए या नहीं, यह भी तो देखना ज़रूरी है। इसलिए आना। आकर ज़रूर देखिए कि गोधूली बेला में पानी पीती गायों की गर्दन झुकी हैं या नहीं? … और उन गर्दनों में लटकी घण्टियाँ बज रही हैं या उनका भी गला घोंट दिया है किसी अजनबी ने
हमारा तो साया भी हमारे क़द से बड़ा है। फिर कभी- कभी सोचने में आता है कि हमारा कोई क़द भी है क्या? हर चीज़ तो अंधेरे में पड़ी कराह रही है! क़द होता भी तो क्या कर लेते? कोई रूहानी नूर भी नहीं है। सिर्फ़ अंधेरा aसरसराता रहता है आस-पास, लाखों पत्तों की तरह…!
.इंसान खुद को सुधार ले तो संपूर्ण समाज सुधर जाएगा: भ्राता ओमकार