सफीदों में मनाई गई सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया पुण्यतिथि अपने इतिहास को याद रखने वाली कौमे हमेशा जिंदा रहती हैं: विजयपाल सिंह

एस• के• मित्तल 
सफीदों,     जो कौमें अपना इतिहास याद रखती हैं, वह हमेशा जिंदा रहती हैं। ये शब्द भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता व राष्ट्रीय कीर्ति आह्वान समिति के राष्ट्रीय संयोजक एडवोकेट विजयपाल सिंह ने कही। वे सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे। इस मौके पर उन्होंने स. जस्सा सिंह आहलूवालिया की पुण्यतिथि पर उन्हें पुष्पाजंलि अर्पित करके नमन किया।
उन्होंने कहा कि हमें सदैव अपने उन महापुरुषों को याद रखना चाहिए जिन्होंने देश और धर्म की रक्षा के लिए विदेशी ताकतों से लोहा लिया और उनका डटकर सामना किया। सरदार जस्सा सिंह आहलुवालिया भारत के उन महान सपूतों में से एक थे। उन्होंने अपनी वीरता के जौहर दिखाकर कौम और देश की रक्षा की। विजयपाल सिंह ने सरदार जस्सा सिंह के जीवन के बारे में बताते हुए कहा कि आजादी के लिए सिखों के संघर्ष के दौरान सर्वोच्च कमांडर सरदार जस्सा सिंह आहलूवालिया का जन्म तीन मई 1718 को लाहौर के करीब एक छोटे से गांव आहलू में हुआ था। जब वह केवल पांच साल के थे तो ही उनके पिता सरदार बदर सिंह का निधन हो गया। उनकी मां माता जीवन कौर ने अपने भाई एवं प्रमुख सिख योद्धा सरदार बाग सिंह अहलूवालिया की मदद से उनका पालन पोषण किया। उनके मामा के निधन के पश्चात उनके जत्थे का उत्तराधिकार का उत्तराधिकार नवाब जस्सा सिंह आहलुवालिया को मिला।
1723 में युवा जस्सा सिंह अहलूवालिया को दिल्ली ले लाया गया ताकि उस वक्त वहां रह रही गुरु गोबिंद सिंह जी की पत्नी माता सुंदरी का आशीर्वाद दिलवाया जा सके। माता सुंदरी जी ने उनकी देखभाल अपने बच्चे की तरह की। युद्ध कला तथा राज्यतन्त्र का शुरुवाती प्रशिक्षण उन्हें सिखों के महान नेता नवाब कपूर सिंह से प्राप्त हुआ। मार्च 1761 में उन्होंने 2200 हिन्दू युवतियों को अफगानिस्तान के बादशाह अहमदशाह अब्दाली के कब्जे से आजाद करवाया। उनके इस कार्य ने उन्हें सिखों में ”बंदी छोड़” के नाम उपाधि से नवाजा गया। नवम्बर 1761 में लाहौर पर जीत के बाद उन्हें पातशाह या सुल्तान-उल-कौम कहा जाने लगा और वह सयुंक्त पंजाब के प्रथम सम्राट बन गये। इस मौके पर गुरु नानक देव, गुरु गोविन्द सिंह के नाम पर सिक्के उन्होंने जारी किये और सिख राज की प्रभु सत्ता का ऐलान कर दिया।
आठ फरवरी 1762 को सिखों के जनसंहार जिसे ”वड्डा घलुघारा” कहा जाता है के बाद उन्होंने अफ्घानी सेनाओ के खिलाफ दल खालसा का नेतृत्व किया। 1764 में उनके नेतृत्व में दल खालसा ने सरहिंद को जीता और इसे नेस्तोनाबूद करके छोटे साहिबजादो बाबा फतेह सिंह, बाबा जोरावर सिंह तथा माता गुजरी की शहीदी का बदला लिया। इस अवसर पर भाजपा ओबीसी मोर्चा प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य रणबीर बिटानी, प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य महिला मोर्चा सरोज भाटिया, गुरप्रीत सिंह नत, प्रवीण सैनी, सोहन सिंह, पूजा वअन्य विशेष तौर पर मौजूद रहे।

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