Risk of Fertiliser Shortage in India : रूस और यूक्रेन की जंग ने दुनिया भर में खाद्यान्न समेत कई जरूरी चीजों की कमी पैदा कर दी है. पड़ोसी देश श्रीलंका में इस वजह से कितने मुश्किल हालात बन गए हैं, यह सब जानते हैं. इस मुश्किल दौर में भारत सरकार दावा कर रही है कि उसके किसान सारी दुनिया को खिलाने की क्षमता रखते हैं. आज यानी शुक्रवार को यह बात केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कही, जबकि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मंगलवार को कुछ ऐसा ही बयान दे चुके हैं. इजिप्ट को भारत से गेहूं सप्लाई करने की जिस सहमति का एलान आज किया गया है, वो सरकार के इस दावे को मजबूत करने वाला है. लेकिन इसी बीच प्रकाशित एक रिपोर्ट ने यह चिंता भी पैदा कर दी है कि क्या हमारे किसान वाकई सरकार की इन अपेक्षाओं को पूरा कर पाएंगे?
देश में फर्टिलाइज़र की उपलब्धता की हालत चिंताजनक?
दरअसल इस चिंता की वजह द इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी एक रिपोर्ट है. इस रिपोर्ट ने देश में फर्टिलाइज़र की उपलब्धता के बारे में जो तस्वीर पेश की है, वो परेशान करने वाली है. यह रिपोर्ट बताती है कि रूस और यूक्रेन की जिस जंग के कारण दुनिया को खाद्यान्नों की कमी का सामना करना पड़ रहा है, उसी ने भारत के सामने फर्टिलाइज़र की कमी की आशंका पैदा कर दी है. रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर साल 9 से 10 मिलियन टन डाई अमोनियम फॉस्फेट (DAP) और करीब इतनी मात्रा में ही NPKS कॉम्प्लेक्स फर्टिलाइज़र की जरूरत पड़ती है. इनके अलावा हर साल लगभग 4.5 से 5 मिलियन टन म्यूरिएट ऑफ पोटाश (MOP) की खपत भी देश में होती है. इसमें से करीब 45 फीसदी डिमांड अप्रैल से सितंबर के बीच आती है,जबकि बाकी 55 फीसदी अक्टूबर से मार्च के दरम्यान निकलती है. लेकिन रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में फर्टिलाइज़र का मौजूदा स्टॉक इस जरूरत के मुकाबले काफी कम है. 1 अप्रैल को देश में DAP का भंडार 2.5 मिलियन टन, NPKS का सिर्फ 1 मिलियन टन और MOP का महज 0.5 मिलियन टन ही था.
दुनिया को खिलाने का दम भर रही सरकार, लेकिन फर्टिलाइजर की कमी हुई तो क्या करेंगे किसान?
खरीफ की बुआई से पहले कैसे होगा इंतजाम?
जानकारों का कहना है कि देश के किसान फिलहाल रबी की फसल की बिक्री में व्यस्त हैं. लेकिन मानसून में खरीफ की बुआई शुरू होने से पहले उन्हें अगली फसल के लिए फर्टिलाइजर की ज़रूरत पड़ेगी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए सरकार को मई के अंत या जून की शुरुआत तक पर्याप्त फर्टिलाइज़र मुहैया कराने होंगे. लेकिन उद्योग जगत के सूत्रों के मुताबिक मौजूदा हालत में ऐसा हो पाना आसान नहीं लग रहा है.
रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ यूरिया ही ऐसी खाद है, जिसकी उपलब्धता को लेकर कम से कम खरीफ सीज़न तक कोई दिक्कत नहीं होने वाली. भारत में यूरिया की सालाना खपत करीब 34-35 मिलियन टन है, जिसमें से करीब 24-25 मिलियन टन का उत्पादन अपने देश में ही होता है. एक अच्छी बात यह भी है कि देश में यूरिया की बिक्री 5360 रुपये प्रति टन के अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) पर होती है, लेकिन इसके इंपोर्ट या प्रोडक्शन पर आने वाली ज्यादा लागत की पूरी भरपाई कंपनियों को सरकार की तरफ से की जाती है.
गैर-यूरिया फर्टिलाइजर के मामले में मुश्किल हैं हालात
यूरिया से अलग गैर-यूरिया खाद के मामले में हालात काफी मुश्किल नजर आ रहे हैं. इनकी सप्लाई काफी हद तक विदेशों पर निर्भर है. मगर उद्योग जगत के सूत्रों का कहना है कि पिछले दो महीनों के दौरान इनके इंपोर्ट के लिए कोई नए कॉन्ट्रैक्ट नहीं किए गए हैं. इसकी बड़ी वजह ये है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में फर्टिलाइजर के भाव आसमान छू रहे हैं और इंपोर्ट करने वाली कंपनियों को भरोसा नहीं है कि वे इन्हें भारतीय बाजार में बेचकर लाभ कमाना तो दूर अपनी लागत भी वसूल कर सकती हैं.
दरअसल, गैर-यूरिया फर्टिलाइजर्स की कीमतें सैद्धांतिक रूप से भले ही डीकंट्रोल यानी नियंत्रण मुक्त हैं, लेकिन हकीकत में कंपनियों को इनकी कीमतें अपने हिसाब से तय करने की पूरी छूट नहीं है. इन पर सब्सिडी भी सरकार पहले से तय रेट के हिसाब से ही देती है. ऐसे में इन्हें ऊंची कीमतों पर इंपोर्ट करके घरेलू बाजार में सस्ता बेचना कंपनियों के लिए फिलहाल घाटे का सौदा है.
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अंतरराष्ट्रीय बाजार की ऊंची कीमतों ने बढ़ाई मुश्किल
फिलहाल देश के बाजारों में DAP की प्रति टन खुदरा कीमत 27,000 रुपये, MOP की 34,000 रुपये और NPKS की 28,000 रुपये प्रति टन है. इन पर कंपनियों को प्रति टन सब्सिडी क्रमश: 33,000 रुपये, 6070 रुपये और 15,131 रुपये मिलती है. इसे मिला दें कंपनियों को DAP पर प्रति टन 60,000 रुपये, MOP पर प्रति टन 40,070 रुपये और NPKS पर प्रति टन 43,131 रुपये मिलते हैं. जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में अभी इन उर्वरकों की कीमतें इससे काफी अधिक हैं. ऊपर से इन पर 5 फीसदी कस्टम ड्यूटी, 5 फीसदी जीएसटी, माल भाड़ा, डीलर मार्जिन, ब्याज और इंश्योरेंस जैसी कई और लागतें भी आती हैं. इन्हें मिला दें तो इंपोर्ट की गई खाद की लागत घरेलू बाजार में मिलने वाले मूल्य से काफी अधिक हो जाती है.
मिसाल के तौर पर एक टन आयातित DAP की लागत करीब 1 लाख 10 हजार रुपये पड़ती है, जबकि कीमत और सब्सिडी मिलाकर कंपनी को मिलते हैं सिर्फ 60 हजार रुपये. कुछ ऐसी ही हालत बाकी गैर-यूरिया फर्टिलाइजर के मामले में भी है. कंपनियों को भरोसा नहीं है कि सरकार उन्हें महंगी अंतरराष्ट्रीय कीमतों के हिसाब से भाव तय करने देगी या इंपोर्ट की लागत और बिक्री मूल्य के अंतर को सब्सिडी बढ़ाकर पूरा करेगी.पिछले दो महीनों के दौरान गैर-यूरिया खाद के इंपोर्ट के लिए कोई नए कॉन्ट्रैक्ट नहीं किए जाने की जो बात सामने आ रही है, उसकी मुख्य वजह भी यही है.
इस मुश्किल का हल क्या है?
जानकारों का कहना है कि इन हालात से निपटने का उपाय सिर्फ एक ही है. और वो ये कि सरकार यूरिया की तरह ही गैर-यूरिया उर्वरक पर भी इंपोर्ट की भारी लागत और बिक्री मूल्य के बीच अंतर की भरपाई सब्सिडी देकर करे. क्योंकि इंपोर्टेड फर्टिलाइजर की आसमान छूती कीमतों को देश के पहले से बेहाल किसानों से वसूले जाने की सलाह शायद ही कोई देगा. इन मुश्किल हालात में सरकार देश के किसानों पर भरोसा तो जता रही है कि वे देश ही नहीं सारी दुनिया के लोगों की भूख मिटाने में सक्षम हैं.लेकिन अगर किसानों को वक्त रहते सही और पर्याप्त फर्टिलाइजर उचित मूल्य पर नहीं मिल पाए, तो वे इस भरोसे को पूरा कैसे करेंगे?