सुधा मूर्ति शिक्षिका और लेखिका हैं। वे इंफोसिस फाउंडेशन की अध्यक्ष भी हैं। वे इंफोसिस के को-फाउंडर एनआर नारायण मूर्ति की पत्नी हैं। भारत सरकार ने इन्हें 2006 में सामाजिक कार्यों के लिए पद्म श्री से सम्मानित किया था। फोटो-फाइल
मशहूर राइटर और समाजसेवी सुधा मूर्ति कहती हैं- हर दिन जब आप सुबह उठते हैं तो आपको सरप्राइज मिलते हैं, कभी अच्छे, तो कभी बुरे। जिंदगी इन्हीं सरप्राइजेस से मिलकर बनी है।
सुधा मूर्ति जिंदगी को एनालॉग वर्ल्ड मानती हैं। उनके मुताबिक, प्रकृति ने हमें एक गति दी है और वो गति धीमी है। इससे तेज मत भागिए बल्कि तालमेल मिलाकर चलिए। सफलता तुरंत नहीं मिलती है। आज हम भले डिजिटल दौर में हैं, लेकिन जिंदगी कोई डिजिटल वर्ल्ड नहीं बल्कि एनालॉग वर्ल्ड है; धैर्य का होना एक तोहफा है, उसे अपनाइए। पढ़िए भास्कर के संचित श्रीवास्तव और रोमेश साहू के साथ सुधा मूर्ति की खास बातचीत…
हर पैरेंट अपने बच्चे को यह एक गिफ्ट दे सकते हैं
पैरेंट्स चाहते हैं कि उनके बच्चों के पास खूब पैसे, बड़ी जायदाद और विशाल मकान हो। लेकिन मुझे लगता है इससे कहीं ज्यादा जरूरी है बच्चों को आत्मविश्वास देना। यह बच्चों के लिए सबसे जरूरी तोहफा है। अगर बच्चा फेल होता है तो बच्चे को आगे के लिए प्रोत्साहित कीजिए।
एक लंचबॉक्स भी लोगों के करीब जाने का पुल बन सकता है
हर इंसान एक द्वीप की तरह है। आप दो द्वीपों को कैसे जोड़ेंगे? एक ब्रिज की मदद से ही ना…। मेरे लिए वो ब्रिज एक लंचबॉक्स है। एक टिफिन बॉक्स ही मेरे लिए अपने करीबियों के घर जाने की वजह बनता है।
मैं खाने की बहुत बड़ी शौकीन हूं। जब भी अपने किसी करीबी के यहां कार्यक्रम में जाती हूं, तो अपने साथ खाली लंचबॉक्स जरूर ले जाती हूं और उसमें खाना लेकर ही वापस घर लौटती हूं। मेरे लिए एक टिफिन का काम सिर्फ खाना रखने तक सीमित नहीं है।
दान सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं है
मेरे लिए फिलैंथ्रपी का मतलब सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं है। जरूरी नहीं कि आप 100 करोड़ रु. का ही दान करें। फिलैंथ्रपी मतलब ‘लविंग योर फेलो ह्यूमन बीइंग्स’। अगर कोई दुखी होता है तो मैं तो हमेशा उससे जाकर कहती हूं कि ‘चिंता मत करो, यह समय बीत जाएगा।’ और अगर कोई बहुत खुश भी होता है तो भी यही कहती हूं। क्योंकि सुख-दुख दोनों ही स्थाई नहीं हैं।
सुधा मूर्ति मानती हैं कि दोस्तों के बिना जीवन बेरंग है।
समय से आगे मत भागिए…
युवाओं से कहूंगी कि तुरंत संतुष्टि के पीछे न भागे। जिस दिन आप पैदा होंगे, उसी दिन सफल नहीं हो जाएंगे। हर चीज तुरंत नहीं होती है। जरूरी है, समय के साथ तालमेल बिठाना, उससे तेज भागने की जरूरत नहीं है। प्रकृति ने हमें एक गति दी है और वो गति धीमी है। इस गति में आपके अंदर धैर्य भी होना चाहिए।
धैर्य प्रकृति के दिए हुए तोहफे की तरह है। और जब आप यह नहीं समझते तभी अवसाद से जूझते हैं। हर दिन आप उठते हैं तो आपको सरप्राइज मिलते हैं, कभी अच्छे, तो कभी बुरे। उन्हीं सरप्राइजेस से मिलकर जिंदगी बनी है।
स्टोरी टाइम विद सुधा अम्मा…
आज के दौर में बच्चे तुरंत संतुष्टि चाहते हैं। हालांकि, कोई किताब बच्चों काे तुरंत संतुष्टि नहीं दे सकती है। लेकिन डिजिटल मीडिया में तुरंत संतुष्टि मिलती है। मुझे लगा कि बच्चे तो वैसे भी जाकर डिजिटल मीडिया देखेंगे ही, मैंने सोचा कि फिर क्यों न वो डिजिटल मीडिया पर बेहतर कंटेंट ही देखें। तब हमने अपनी किताब की कुछ कहानियां ‘स्टोरी टाइम विद सुधा अम्मा’ के तौर पर डिजिटल मीडिया में एनिमेशन फॉर्म में तैयार की।
खुद के लिए कहानियां लिखती हूं
लिखना मेरे लिए एक भावना है। अगर मैं खुश हूं, दुखी हूं या तनाव में हूं। तो मैं लिखकर ही अपनी भावनाएं व्यक्त करती हूं। कभी भी दूसरे व्यक्ति को खुश करने के लिए नहीं लिखती। मेरे पसंदीदा लेखक हैं जॉर्ज मिकेस। उनकी किताब मुझे और नारायण मूर्ति दोनों को पसंद है।
दोस्तों के बिना जीवन बेरंग है
दोस्तों पर मैंने ‘कॉमन यट अनकॉमन’ किताब लिखी है। इस किताब के सभी 14 किरदार मेरे दोस्त ही हैं। मैं तो दोस्तों को खूब तवज्जो देती हूं क्योंकि दोस्तों के बिना जिंदगी बोरिंग है। और मेरे हिसाब से दोस्तों के साथ ईमानदार होना चाहिए। अगर आप किसी चीज में असहज हैं, तो बेझिझक उन्हें बताइए। और अगर उनके लिए कुछ कर सकते हैं, तो वो भी बेझिझक कीजिए।
मेरा पेट गोपी मुझसे ज्यादा फेमस है
मेरा बेटा रोहन एक बार लंदन जा रहा था। तभी वह अपने डॉग गोपी को हमारे यहां छोड़ गया। गोपी हमारे यहां सिर्फ हफ्ते भर के लिए आया था…लेकिन फिर कोविड आ गया। इसी दौरान गोपी मेरा चहेता बन गया। मैं रोजाना सुबह 5 बजे उठती हूं और सबसे पहले गोपी से बात करती हूं।
जब मैं ऑफिस जाती हूं तो गोपी मेरे साथ आता है। अभी एक कार्यक्रम में भी गोपी मेरे साथ स्पीच में आएगा। बेंगलुरु में गोपी मुझसे ज्यादा पॉपुलर है। लोग मुझे देखकर कहते हैं कि देखो गोपी की आजी जा रही हैं। यह सुनकर मुझे बहुत खुशी होती है।
मैं अपनी किताबें नारायण से भी शेयर नहीं करतीं
शादी से पहले हमारे पास किताबों के लिए सीमित पैसे होते थे। हमने तय किया था कि 150-150 रुपए में मिलकर किताब खरीदेंगे। लेकिन जब बुकस्टोर जाते, तब नारायण मूर्ति कहने लगते कि अभी मुझे किताब की ज्यादा जरूरत है इसलिए मैं किताब खरीद लेता हूं, आप अगले महीने खरीद लेना।
लेकिन जब उन्होंने तीन महीने तक लगातार यही किया और मुझे किताब नहीं खरीदने दी, तब मैंने उनकी एक न सुनी और अपने पूरे पैसों की किताब खरीद ली। मैं समझ गई थी कि उनके पास हर महीने कोई नया बहाना होगा ही। आज भी मेरी खुद की अलग लाइब्रेरी है, मैं नारायण मूर्ति से अपनी किताबें शेयर नहीं करती।