आर्य समाज सफीदों ने मनाया स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस
एस• के• मित्तल
सफीदों, आर्य समाज सफीदों के तत्वावधान में नगर के आर्य समाज मंदिर में स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस मनाया गया। इस समारोह में प्रवचन कत्र्ता स्वामी धर्मदेव महाराज रहे तथा भजनोपदेशक पंडित मोहित शास्त्री अपने भजनों के माध्यम से श्रद्धालुओं को स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस के बारे में विस्तार से बतलााया। आर्य समाज सफीदों के प्रधान यादविंद्र सिंह बराड़ व महामंत्री संजीव मुआना ने आए हुए विद्वानों का फूलों की मालाओं के साथ अभिनंदन किया। अपने संबोधन में स्वामी धर्मदेव महाराज ने कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया।
सफीदों, आर्य समाज सफीदों के तत्वावधान में नगर के आर्य समाज मंदिर में स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस मनाया गया। इस समारोह में प्रवचन कत्र्ता स्वामी धर्मदेव महाराज रहे तथा भजनोपदेशक पंडित मोहित शास्त्री अपने भजनों के माध्यम से श्रद्धालुओं को स्वामी श्रद्धानंद बलिदान दिवस के बारे में विस्तार से बतलााया। आर्य समाज सफीदों के प्रधान यादविंद्र सिंह बराड़ व महामंत्री संजीव मुआना ने आए हुए विद्वानों का फूलों की मालाओं के साथ अभिनंदन किया। अपने संबोधन में स्वामी धर्मदेव महाराज ने कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया।
वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा 1920 के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की। उन्होंने कहा कि युवावस्था में वे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे लेकिन स्वामी दयानन्द के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया। सन् 1917 में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। उन्होने पत्रकारिता में भी कदम रखा। वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे।
बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए उनने देवनागरी लिपि में लिखे हिन्दी को प्राथमिकता दी। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का 43वां अधिवेशन हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढकर भाग लिया। सन् 1919 में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था। 23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी।
कार्यक्रम के समापन पर ऋषि लंगर का आयोजन किया जाएगा। उन्होंने श्रद्धालुओं से आह्वान किया कि वे इस समारोह में बढ़-चढ़कर भाग लेकर धर्म लाभ कमाएं। उन्होंने कहा कि स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे।