राजनीति बदल रही है। हर कोई हर किसी को अपने पाले में करने के लिए उतावला है। हिमाचल प्रदेश का मामला सुलझ गया है लेकिन कब तक? कर्नाटक जीतने वाले कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार आख़िर हिमाचल को बचाने कब तक दौड़ते रहेंगे? हो सकता है हिमाचल से उनके मुँह फेरते ही फिर कोई ऑपरेशन लोटस अपना कमाल दिखा दे और सुक्खू की सरकार खड़े- खड़े सूख जाए!
फ़िलहाल कांग्रेस के छह बाग़ी विधायकों को अयोग्य ठहराकर कांग्रेस राहत की साँस ले रही है और कह भी रही है कि हमने तमाम मतभेद ख़त्म कर लिए हैं लेकिन अयोग्य ठहराए गए विधायक हाई कोर्ट पहुँच गए हैं। वहाँ से क्या निर्णय होगा, यह भविष्य में पता चलेगा।
गुरुवार को हिमाचल प्रदेश में सरकार पर संकट को लेकर डीके शिवकुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। सीएम सुखविंदर सुक्खू भी मौजूद रहे।
कुल मिलाकर कांग्रेस में अभी उतनी शांति नहीं है जितनी दिखाई जा रही है। चौबीसों घंटे भाजपा पासा पलटने के लिए तैयार खड़ी है।
महाराष्ट्र में इस तरह के दो ऑपरेशन हो चुके हैं, और वहाँ भाजपा दोनों बार सफल रही है। पहला तब जब शिवसेना में तोड़फोड़ करके उद्धव ठाकरे की सरकार गिराई गई थी और दूसरा तब जब बलशाली नेता शरद पवार के पैरों तले से ज़मीन खींच ली गई थी। उन्हीं के भतीजे ने भाजपा से जुड़कर पूरी राकांपा को अपनी तरफ़ कर लिया था और पार्टी का नाम, निशान सब कुछ अपने कब्जे में ले लिया था।
अगले लोकसभा चुनाव के एकतरफ़ा और नीरस होने की भले ही पूरी गुंजाइश हो लेकिन महाराष्ट्र का वोट पैटर्न देखना बड़ा दिलचस्प होगा। दिलचस्प इसलिए कि सत्ता की ख़ातिर शिवसेना के दो टुकड़े करने वाली कथित असली शिवसेना पर आख़िर आम जनता भरोसा करती है या नहीं?
अगले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र का वोट पैटर्न देखना बड़ा दिलचस्प होगा।
इसी तरह उसी सत्ता की ख़ातिर अपने काका शरद पवार से अलग होने वाले अजित दादा के पक्ष में लोग वोट कर पाएँगे या नहीं? यह भी सवाल है कि इस बीच ठाकरे वाली शिवसेना और कांग्रेस के क्या हाल होंगे? भाजपा जो अब तक शिवसेना से समझौते के भरोसे सीटें बढ़ाती रही, उसकी स्थिति आख़िर क्या रहेगी?
राजनीति में हालाँकि कुछ भी स्थाई नहीं होता लेकिन यह सच है कि तोड़ फोड़ के ज़रिए इधर- उधर होने वाले नेताओं की भी मैदानी पकड़ उतनी नहीं रह जाती जितनी कभी होती थी। देखना यह है कि अलग- अलग पार्टियों से टूटे हुए कितने विधायकों को लोकसभा चुनाव में उतारा जाता है और आख़िरकार इनमें से कितने महारथी चुनावी नैया को पार लगा पाते हैं?