भास्कर ओपिनियन- चुनावी चंदा: चुनावी बॉन्ड की जानकारी साझा करने में स्टेट बैंक को इतनी हिचक क्यों?

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7 मिनट पहलेलेखक: नवनीत गुर्जर, नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर

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चुनावी बॉन्ड में कुछ तो गड़बड़ है। सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें बंद करवा दिया है। हिसाब भी माँगा है भारतीय स्टेट बैंक से। स्टेट बैंक से इसलिए कि इन्हें जारी करने और इनकी गोपनीयता बनाए रखने का सारा ज़िम्मा इसी बैंक के पास है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आए महीना हो गया लेकिन बैंक ने इस दिशा में कोई काम नहीं किया।

दरअसल, स्टेट बैंक को इसका सारा हिसाब या डेटा चुनाव आयोग को देना था और चुनाव आयोग इस पूरे डेटा को सार्वजनिक करने वाला था। अपनी वेबसाइट पर डालने वाला था। लेकिन हुआ कुछ नहीं। जब स्टेट बैंक के खिलाफ एडीआर ने अवमानना की याचिका लगाई तो बैंक के कान खड़े हुए।

सोमवार को इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। बैंक ने सारा डेटा देने के लिए तीस जून तक का वक्त माँगा। क्यों? यह कोई नहीं जानता। स्वयं बैंक भी इसका ठीक से जवाब नहीं दे पाया।

आख़िर सुप्रीम कोर्ट ने बैंक को सिर्फ़ एक दिन का वक्त दिया और कहा कि 12 मार्च यानी मंगलवार तक आप तमाम डेटा चुनाव आयोग को दे दीजिए और चुनाव आयोग हर हाल में 15 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर सारा डेटा डाल दे।

कोर्ट में हुई दलील और बहस से साफ़ लग रहा था कि बैंक किसी तरह अपनी ज़िम्मेदारी की तारीख़ बढ़वाना चाह रहा था। बैंक के इस भाव को कोर्ट ने पूरी तरह समझ लिया और एक दिन में ही काम पूरा करने का आदेश दे दिया।

वास्तव में खुद बैंक ने ही अपने एफिडेविट में कह दिया था कि हम इस डेटा को सार्वजनिक नहीं कर सकते। यह सब एक लिफ़ाफ़े में बंद रहता है। कोर्ट ने यह बात पकड़ ली। बैंक से कहा कि जब सब कुछ लिफ़ाफ़े में मौजूद ही है तो दिक़्क़त क्या है? लिफ़ाफ़ा खोलिए और चुनाव आयोग को दे दीजिए।

अब सवाल यह उठता है कि क्या बैंक पर कुछ राजनीतिक दलों का दबाव है? या वे राजनीतिक दल डेटा में कुछ हेरा फेरी करके इसे अपनी सहूलियत के अनुसार सार्वजनिक करवाना चाहते हैं?

जो भी हो, लेकिन इतना ज़रूर तय है कि बैंक पर कहीं न कहीं से, किसी न किसी रूप में, कोई न कोई दबाव तो रहा ही होगा। वर्ना बैंक को डेटा देने में परेशानी ही क्या है? वह भी तब जब उसे सीधे सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा जाए!

ख़ैर, जो भी हो, अब चुनावी बॉन्ड के ज़रिए राजनीतिक दलों के चंदे की हेराफेरी (अगर कोई हो रही होगी तो) बंद हो ही जाएगी। चुनावी चंदे के मामले में पारदर्शिता आने की संभावना भी निश्चित रूप से बढ़ जाएगी।

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