कर्मवाद जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत है: नवीन चन्द्र महाराज

100
Advertisement
एस• के• मित्तल 
सफीदों,     नगर की श्री एसएस जैन स्थानक में धर्मसभा को संबोधित करते हुए मधुरवक्ता नवीन चन्द्र महाराज एवं श्रीपाल मुनि महाराज ने जैन धर्म में कर्मवाद का महत्व बताते हुए कहा कि जैसे कैसेट में रील होती है, रील पर मसाला लगा होता है उस मसाले में सारे प्रोग्राम होते हैं, रील चलती रहती है और हम प्रोग्राम देखते या सुनते रहते हैं, उसी तरह शरीर रूपी कैसेट में आत्मा रूपी रील पर कर्म रूपी मसाला लगा है।
अशुभ मन, दूषित वाणी तथा पाप पूर्ण क्रियाओं से कर्म रूपी मसाला आत्मा से चिपक जाता है और हम तदनुसार नरकादि चार गतियों व 84 लाख जीवयोनि में भ्रमण करते रहते हैं। सुख-दुख, रोग, गरीबी-अमीरी भोगते रहते हैं। अन्य कोई हमें सुख-दुख नहीं देता, अपने ही कर्मों का सब फल भोगते हैं। अच्छे कर्म अच्छा, बुरे कर्म बुरा फल देते हैं। जन्म-मरण तथा सुख-दुख से मुक्त होना है तो इस रील को ब्लैंक करो, उसके लिए जप-तप, नियम-संयम, सेवा-विनय, दान-पुण्य, ज्ञान-ध्यान, स्वाध्याय तथा कठोर साधना का सहारा लेना आवश्यक है। कर्मवाद जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त है, कर्म आठ होते हैं, जो आत्मा के परमात्मा बनने के गुणों को ढक देते है। जैसे बादल सूर्य के प्रकाश को ढक देते हैं, जैसे-जैसे हम संयम साधना तथा शुभ-प्रशस्त योगों (मन, वचन, काया) और विषय कषाय विजय के द्वारा सारे कर्मों को नष्ट कर देगें वैसे-वैसे कर्म हल्के होते-होते खत्म हो जाएगें और आत्मा अनन्त ज्ञान रूप प्रकाश पुंज यानि परमात्मा हो जाएगी।
फिर वो पुन: संसार में जन्म (अवतार) नहीं लेगी। जैसे दूध से निकला हुआ मक्खन लस्सी के ऊपर तैरता है, लस्सी में मिलकर पुन: दूध नहीं बन सकता इसी तरह कर्मों से मुक्त सिद्ध आत्मा पुन: संसारी आत्मा नहीं बनती। अर्थात् हमारे सुख-दुख, जन्म-मरण का कारण हमारे अपने कर्म हैं जिनका राग-द्वेष, क्रोध, मान-माया, लोभ, वासना कामना, इच्छा घृणा आदि दोषों के कारण हम निरंतर बंध करते हैं और संसार में घूमते रहते हैं। शाश्वत सुख (जो कभी दुख में न बदले) पाना है तो कर्मबन्ध से बचें, उसके लिए संयम, अनुशासन, मर्यादा, नैतिकता, धार्मिकता में ऊंचे भावों से रमण करें।
Advertisement